
एक खेल पत्रकार का दर्द
आपको शायद हैरानी होगी..365 में मौसम भी चार होते हैं...तो फिर इतने दिन का एक रुप कैसे हो सकता है...लेकिन चौकिए मत ...वसीम अब्बासी की ज़िंदगी
इस जुमले को पिछले तीन साल से हकीकत में तदबील करती आ रही है...जिसका अंत करना उपर वाला भी करना भूल गया है...हालांकि ऐसा नहीं है कि वसीम ने कभी 365 दिन को अलग रंग देने
की कोशिश न की है...हर रोज़ ये पगला सुबह 7 बजे यही सोचकर उठता है कि उसे ऑफिस जाने से पहले
थोड़ा ज्यादा वक्त मिल जाए...यहां तक की ऑफ वाले दिन तो खुद को छुट्टी का अहसास कराने के लिए
देर से सौना और जल्दी उठना अब इसकी आदत बन चुका है...लेकिन बावजूद इसके एक दिन भी वसीम की ज़िंदगी में इंद्रधनुष के रंग दिखाई नहीं दिए...दरअसल बात 3 साल पुरानी है...जब वसीम ने S1 को
छोड़कर लाइव इंडिया को ज्वाइन किया...नई सस्थान का हिस्सा बनने पर लगा कि ज़िंदगी में बदलाव आएगा...लेकिन ये बदलाव सिर्फ इतना था कि ऑफिस जाने का रास्ता बदल चुका था...अब जामिया से नोएडा के लिए नहीं बल्कि रामाकष्ण मार्ग के लिए आना पड़ता था...खैर बात 365 दिन के एक रुप की बताना चाहता हूं...वैसे तो हर किसी की ज़िंदगी का हर दिन सुबह के सूरज से शुरू होता है...लेकिन वसीम का हर दिन तब शुरू होता है...जब वो रात को ऑफिस से घर के लिए रवाना होता है...क्योंकि इसी वक्त अपनी बाइक पर सवार वसीम ज़िंदगी को बदलने के सपने देखता है...कई बार तो चलती बाइक पर सपना देखना इसके लिए मौत का पैगाम भी लेकर आया...लेकिन ये अड़ियड़ था कि मानता ही नहीं था...खुली आंख से हर रोज़ देखे जाने वाले सपने इतनी ही देर रहते थे कि जब तक चारपाई पर लेटकर इसकी आंखें बंद न हो जाए...क्योंकि अगले दिन की सुबह का सवेरा फिर इसे ऑफिस जाने की टेंशन दे देता था...उठकरक फ्रैश होना...और चाय वाली की दुकान पर नाश्ता करना...यहां तक की ज़िंदगी के इस एक दिन को बदलने के लिए अब तो चाय वाला भी साथ नहीं देता...पहले तो वो भी पूछ लिया करता था कि सर नाश्ते में क्या लोगो...अब तो वो भी जान गया कि वसीम को नाश्ते में सोमवार को क्या चाहिए...और शनिवार को क्या...लेकिन एक चीज़ तो हल हो जाती है रोज़ाना...चाय की चुस्की ही सबसे पहले वसीम को बताती है क्या शाम को स्पोर्ट्स ट्रैक में क्या क्या लिया जा सकता है...भला हो टाइम्स ऑफ इंडिया का...हफ्ते में कम से कम 5 दिन तो वो लीड स्टोरिज़ बनवाता ही है...लेकिन अब इसमें भी मज़ा नहीं रहा...क्योंकि ये भी अब राज़मर्रा की चीज ही बन गया है...नाश्ते और अखबार पढ़ने के बाद...ऑफिस जाने के वक्त तक मिले खाली वक्त में ज़िंदगी को बदलने की कोशिश में तम्बाकू जैसी खतरनाक चीज की भी लत लग गई...शुरआत के दिनों में तो बड़ा अच्छा लगा...हल्का हल्का नशे का सुरूर कुछ पल के बड़ी राहत देता था...लेकिन इसकी राहत भी कब गायब हो गई..पता ही नहीं चला...और जल्द ही ऐसा लगने लगा कि दांतों को गंदा करने के अलावा ये किसी काम का नहीं...और हो भी क्यों न...किसी ने सही कहा है कि जो चीज आम हो जाती है उसकी तासीर जाती रहती है...बहरहाल जब आदत में शूमार हो गया है तो भला छूट कैसे सकता है...एक यही तो है जो नाश्ते और ऑफिस जाने की दूरियों को खत्म करता है...हालांकि इस बीच किसी दोस्त का फोन आ जाता है...लेकिन इन दोस्तों में भी रूटीन बातों ने पीछा नहीं छोड़ा...क्योंकि गिने चुने दोस्तों में 90 फीसदी फोन पर बातें आईबीएन 7 के स्पोर्ट्स पत्रकार रवीष बिष्ट से ही होती है...हालांकि रवीष से बातें करना अच्छा लगता है...ज़िंदगी बदलने के दर्द को एक वही तो है...जो सुन लेता है...पहले तो उनसे भी बातें स्टोरिज़ को लेकर होती थी...लेकिन जबसे लाइव इंडिया छोड़ा...अब गपशप होती है...ये भी एक बदलाव था...लेकिन अब ये भी चार दिन चांदनी रात वाली बात हो गई है... वही तेरे मेरे ऑफिस की गपशप...वहीं पुरानी बातें ... लड़कियों पर डिस्कशन...ईटीसी...चूकी ये भी रूटीन बन गया है इसलिए इसको भी बयां करना जरूरी है...ऑफिस जाने के बाद भी वही रोजाना पैकेज लिखना एस्टन बनाना और पीसीआर में जाकर रन रोल करना...और हफ्ते में तीन दिन बॉस ऋषभ शर्मा की डांट खाना...हमेशा ही की तरह डांट में 80 फीसदी फॉल्ट किसी और का ही होता... लेकिन सौ फीसदी का डोज मुजे मिलता... और तो और 7 दिन के बाद एक दिन आने वाला ऑफ के दिन ने भी ज़िंदगी को नहीं बदला...अम्मी का ज्यादा फोन आया तो खुर्जा का रुख कर लिया...नहीं तो सारा दिन यही सोच कर निकाल गया कि ऑफ खत्म होने में 10 घंटे बचे हैं...कि अब 5...ज़िंदगी कभी ऑफ के दिन बदलती भी थी...एक लड़की थी...जिसकी अक्ल पर पर्दा पड़ गया था..और वो वसीम पर ना जाने कैसे फिदा हो गई थी...ऑफ का सारा दिन उसी के साथ गुज़रता था...लेकिन वो तो गुज़रे ज़माने की बात हो गई...अब तो उसी यादें भी रुटीन में आकर कहीं खत्म हो गईं...उसके बाद बहुत कोशिश की...शेव बनाकर भी गए...ब्रांडिड कपड़े भी पहने...लेकिन किसी भी लड़की ने वसीम की मुहब्बत को नहीं समझा... और दिन ब दिन गुज़र रहे हैं...और वसीम अब्बासी को मौत के करीब पहुंचा रहे हैं।
वसीम अब्बासी


मैं वसीम भाई के लिए सिर्फ इतना ही कहूंगा कि ..जिंदगी सिर्फ एक बार मिलती है ...इसलिए ..इसे जितनी खूबसूरती से जिया जाए ..उतना ही बेहतर है....जिंदगी का हर पल अहम है...इसे मजे मे जियो.....जिंदगी से लड़ने का सबसे सरल तरीका है ...दिल पर हाथ रखो और कहो ऑल इज वेल...ऑल इज वेल...वसीम तेरा दिन भी आएगा...रात तो तेरी ही है....
जवाब देंहटाएं